Friday, February 29, 2008

हनुमान जी की आरती (भोजपुरी )


आरती कर हनुमान लला के ,
दुष्ट दलन रघुनाथ कला के॥
आरती कर हनुमान लला के....
जेकरा बल से गिरिवर कांपेला,
रोग द्वेष जेकरा निकट ना आवेला॥
अंजनी पुत्र महा बल्वाले,
संतानं के सदा सुहालें॥
देके बीरा रघुनाथ जी के सेव्लें,
लंका जरैलें, सीता के सुधि लाइलें॥
लंका किनारे रहल समुन्दर ओरो खाई,
गैलें पवनसुत वापस ना आइलें॥
लंका जरैलें असुरन के मर्लें,
श्री रामजी के काम सम्भल्लें॥
लक्ष्मण मूर्छित भैलें,
संजीवन लाके जान बचैलें॥
पैठ रहल पताल, यम् लोक सारे,
अहिरावन के भुजा उखार्लें॥
बायें हाँथ से असुरन के मर्लें,
दाहिने हाँथ से संत लोगन के तर्लें॥
सुर नर मुनि सभे आरती उतर्लस,
जय जय जय हनुमान उच्चार्लस॥
कंचन थाली कपूर लौ लगावल रहे,
आरती कैली अंजना माई॥
जे हनुमान जी के आरती गावे,
बैकुंठ जाके परम पद पावे॥
आरती..

हनुमान जी की आरती (ब्रज )




आरती
की जय हनुमान लला की,
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की । आरती .....



जाके बल से गिरिधर काम्पें,
रोग द्वेष जाके निकट ना झाम्पें॥
अंजनी पुत्र महा बल दाई ,
संतन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीरा रघुनाथ पठाए,
लंका जारी सिया सुधि लाये॥
लंका सो कोट समुन्द्र सी खाई,
जात पवनसुत बार ना लाई॥
लंका जारी असुर संहारे,
सिया राम जी के काज संवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे,
आनी संजीवन प्राण उबारे॥
पैठी पताल तोरी जम कारे,
अहिरावन के भुजा उखारे॥
बायें भुजा असुर दल मरे,
दहीने भुजा संतजन तारे॥
सुर ,नर, मुनि आरती उतारे,
जय जय जय हनुमान उचारे॥
कंचन थार कपूर लौ छाई,
आरती करत अंजना माई॥
जो हनुमान जी की आरती गावे,
बसी बैकुंठ परम पद पावे॥ आरती....

Thursday, February 14, 2008

शनी की महत्ता

एक समय स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न को लेकर सभी देवताओं में वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंचे और बोले, हे देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए। और कुछ देर सोच कर बोले, हे देवगणों! मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं। पृथ्वीलोक में उज्ज्यिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य का राज्य है। हम राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं क्योंकि वह न्याय करने में अत्यंत लोकप्रिय हैं। उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर राजा विक्रमादित्य दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का न्याय करते हैं।
देवराज इंद्र के आदेश पर सभी देवता पृथ्वी लोक में उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे। देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया। महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे। क्योकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान शक्तिशाली थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी। तभी राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, व लोहे के नौ आसन बनवाए। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवा कर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा। सब देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा, आपका निर्णय तो स्वयं हो गया। जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है। राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा, राजन! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा। सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है। राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। उसके वंश का सर्वनाश हो गया। राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा। राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोड़ा भयभीत तो हुए, लेकिन उन्होंने मन में विचार किया, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा। फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की आवश्यकता क्या है?


उसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ वहां से चले गए, लेकिन शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए।
राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनिदेवता अपने अपमान को भूले नहीं थे। विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे।


राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा। अश्वपाल ने वहां जाकर घोड़ों को देखा तो बहुत खुश हुआ। लेकिन घोड़ों का मूल्य सुन कर उसे बहुत हैरानी हुई। घोड़े बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया। घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुआ तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया। राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा। लेकिन उसे लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख-प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी। फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से बाहर निकलकर पास के नगर में पहुंचा।


राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्ज्यिनी से आया हूं। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में अकेला छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई। सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का सन्देह राजा पर ही किया, क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था। इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया। कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ॠतु प्रारम्भ हुई। राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गानेवाले को बुला लाने को कहा। दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर बहुत मोहित हुई थी। अत:उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया। राज कुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गये। राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है। रानी ने मोहिनी को समझाया, च्बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?ज् राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही। लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिर राजा, रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा,च्राजा! तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दण्ड दिया है।ज् राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की,च्हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना l शनिदेव ने कुछ सोचते हुए कहा,राजा ! मैं तेरी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी। उसे कोई दुख नहीं होगा। शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी।ज् प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उसने मन-ही-मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी कह सुनाई। सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया, क्याेंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने वह हार उगल दिया। सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।


राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्ज्यिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया। उस रात उज्ज्यिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दीवाली मनाई। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई, शनी देव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे।

Tuesday, February 5, 2008

मंगलवार व्रत कथा


ॠषिनगर में केशवदत्त ब्राह्मण अपनी पत्नी अंजलि के साथ रहता था। केशव दत्त के घर में धन-सम्पत्ति की कोई कमी नहीं थी। नगर में सभी केशवदत्त का सम्मान करते थे, लेकिन केशवदत्त सन्तान नहीं होने से बहुत चिन्तित रहता था। उसकी पत्नी अंजलि भी सन्तान की चिन्ता में बहुत कमजोर हो गई थी। दोनों पति-पत्नी प्रति मंगलवार को मंदिर में जाकर हनुमान जी की पूजा किया करते थे। मंगलवार का विधिवत व्रत करते हुए उन्हें कई वर्ष बीत गए थे। ब्राह्मण बहुत निराश हो गया था, लेकिन उसने व्रत करना नहीं छोड़ा था। कुछ दिनों के बाद केशवदत्त हनुमानजी की पूजा करने के लिए जंगल में चला गया। उसकी पत्नी अंजलि घर में रहकर मंगलवार का व्रत करने लगी। दोनों पति-पत्नी पुत्र-प्राप्ति के लिए मंगलवार का विधिवत व्रत करने लगे। कुछ दिनों बाद अंजलि ने अगले मंगलवार का व्रत किया, लेकिन किसी कारणवश उस दिन अंजलि हनुमानजी का भोग नहीं लगा सकी। हनुमानजी को भोग लगाए बिना वह स्वयं भी भोजन कैसे करती? सो उस दिन अंजलि सूर्य छिप जाने पर भूखी ही सो गई। अगले मंगलवार को हनुमानजी को भोग लगाए बिना उसने भोजन नहीं करने का प्रण कर लिया। छ: दिन तक अंजलि भूखी-प्यासी रही। सातवें दिन मंगलवार को अंजलि ने हनुमानजी की पूजा की, लेकिन तभी भूख-प्यास के कारण अंजलि बेहोश हो गई। हनुमानजी ने उसे स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा, उठो पुत्री! मैं तुम्हारे पूजा-पाठ से बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हें सुंदर व सुयोग्य पुत्र होने का आशीर्वाद देता हूं। जब यह कहकर हनुमान जी अंतर्धान हो गए। तभी अंजलि की बेहोशी दूर हो गई। उसने जल्दी से उठ कर हनुमानजी को भोग लगाया और स्वयं भी भोजन किया। हनुमान जी की अनुकंपा से नौ महीने के पश्चात अंजलि ने एक सुंदर शिशु को जन्म दिया। मंगलवार को जन्म लेने के कारण उस बच्चे का नाम मंगल प्रसाद रखा गया। कुछ दिनों बाद अंजलि का पति केशवदत्त भी घर को लौट आया। उसने आंगन में खेलते मंगल को देखा तो अंजलि से पूछा, च्यह सुंदर बच्चा किसका है? अंजलि ने खुश होते हुए हनुमानजी के दर्शन देने और पुत्र प्राप्त होने का वरदान देने की सारी कथा सुना दी। लेकिन केशव दत्त को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसके मन में पता नहीं कैसे यह कलुषित विचार आ गया कि अंजलि ने उसके साथ विश्वासघात किया है। अपने पापों को छिपाने के लिए अंजलि झूठ बोल रही है।
केशवदत्त ने उस बच्चे को मार डालने का संकल्प किया। एक दिन घर से बाहर कुछ दूरी पर बने हुए कुंए पर केशवदत्त स्नान के लिए गया। मंगल भी उसके पीछे-पीछे कुंए पर पहुंच गया। केशवदत्त ने स्नान के बाद मंगल को उठाकर उस कुंए में डाल दिया और चुपचाप घर लौट आया। अंजलि ने उस के साथ मंगल को नहीं देखा तो उससे पूछा, च् मैंने मंगल को आपके पीछे जाते देखा था। वह आपके साथ लौटकर क्यों नहीं आया? केशवदत्त ने कहा, मंगल तो मेरे पास कुंए पर पहुंचा ही नहीं। वह कहीं खेलने लग गया होगा. अभी केशवदत्त ने यह कहा ही था कि तभी मंगल दौड़ता हुआ घर लौट आया। केशवदत्त मंगल को देखकर बुरी तरह हैरान हो उठा। उसी रात हनुमान जी ने केशवदत्त को स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा, तुम दोनों के मंगलवार के व्रत करने से प्रसन्न होकर, पुत्र-जन्म का वर दिया था। फिर तुम अपनी पत्नी को कुलटा क्यों समझते हो? यह कहकर हनुमानजी अंतर्धान हो गए। तभी बिस्तर से उठकर केशवदत्त ने दीपक जलाकर रोशनी की और अंजलि को जगाकर उससे क्षमा मांगते हुए स्वप्न में हनुमानजी के दर्शन देने की सारी कहानी सुनाई। केशवदत्त ने अपने बेटे को हृदय से लगाकर प्यार किया। उस दिन के बाद सभी आनंदपूर्वक रहने लगे। मंगलवार का विधिवत व्रत करने से उनके घर के सभी कष्ट नष्ट हो गए। इस तरह जो स्त्री-पुरुष विधिवत मंगल वार का व्रत करके, व्रत कथा सुनते हैं, हनुमानजी उनके सभी कष्ट दूर करके घर में धन-सम्पत्ति का भण्डार भर देते हैं। शरीर के सभी रक्त विकार के रोग भी नष्ट हो जाते हैं।

Friday, February 1, 2008

क्या मानवता ख़तम होती जा रही है?

पिछ्ले साल मुझे हरिद्वार जाने का अवसर मिला...
यह एक बहुत ही सुनहरा अवसर था मेरे लिए क्यूँ की मैं आपने जीवन में कभी इस शहर का दर्शन नहीं कर पाया...
यहाँ की जो बातें सबसे अच्छ्ही लगी मुझे वो मैं बताता हूँ...
स्वच्छ और निर्मल जल पवित्र गंगा की जैसे अमृत, वृक्षों से अक्षादित पर्वतमालायें, और यहाँ का तापमान, ये सब इस शहर को, जो हरी का द्वार माना जाता है आपने आप में एक महान शहर बनाते हैं...
मुझे इस शहर में हर की पौडी, चंडी देवी के मंदिर, मनसा देवी के मंदिर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ...
मैंने इसमें सबसे ज्यादा सुख पाया, दो अलग अलग पर्वतों पर स्थित इन दोनों मंदिर तक जाने में, यद्यपि इसमें जटिल चढाई थी...
लेकिन वृक्षों के अक्छादित पहाडियों का दृश्य ही मनोरम होता है...
यहाँ एक ऐसा मंज़र मैंने देखा जिसने कुछ हद तक मेरा सारा उत्साह फीका कर दिया...
यह मंज़र था पर्यटकों द्वारा बंदरों को पत्थरों से मारे जाने का ....
शहरों के कांक्रेतीकरण के कारण ये सारे जीव अब वैसी जगहों तक सीमित रह गए हैं जहाँ अब वृक्ष बचे हैं, जैसा की ज्यादातर धार्मिक स्थलों के आस पास का माहौल रहता है...
और ये आपने जीवन के लिए लोगों द्वारा ले जाने वाले खाद्य पदार्थ (प्रसाद) पर निर्भर करते हैं..
तो ये तो आने जाने वाले पर्यटकों का प्रसाद लेने का प्रयास करेंगे ही...
मनुष्य को चाहिए की उनके लिए कुछ खाने का पदार्थ छोड़ कर आयें...
पर मनुष्य तो मानवता शायद भूलता जा रहा है..
अगर धार्मिक दृष्टि से भी देखें तो ये अधर्म है क्यूंकि हमारे धार्मिक ग्रंथ ये कहते हैं की सारे जीवों में भगवान का अंश है..इस दृष्टि से भी ये सही नहीं है..
और अगर मनुष्य की उत्त्पत्ति को देखें तो ये मनुष्य के वंशज कहे जाते हैं ..
इस घटना को देख कर यही प्रतीत होता है की मनुष्य मानवता भूलता जा रहा है...
क्या ये सही है ?
क्या मानवता ख़तम होती जा रही है?
क्या मनुष्य अधार्मिक होता जा रहा है ?